महात्मा गांधी के विचारों से स्वन्त्रता का सही अर्थ ! - Taponishtha

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Thursday, October 3, 2019

महात्मा गांधी के विचारों से स्वन्त्रता का सही अर्थ !

भारतीय इतिहास के महान व्यक्तित्व "राष्ट्रपिता महात्मा गांधी "जी के जन्मदिन की 150वीं वर्षगांठ पर देश में स्वन्त्रता प्राप्ति में दिए गए उनके योगदान को आज बहुत ही वृहद स्तर पर सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि विश्वस्तर पर भी पूरे हर्ष ओर उल्लास के साथ मनाया जा रहा है।

इस हर्ष और उल्लास में सबसे महत्वपूर्ण बात यह प्रासंगिक प्रतीत होती है कि किस तरह उन्होंने देश को स्वन्त्रता के उस सपने को पूरा करने में योगदान दिया जिसकी कल्पना करना उस वक़्त की ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा बनाई हुई परिस्थितियों के कारण असंभव सा लग रहा था। लेकिन महात्मा गांधी के अनन्य योगदानो ने अंततः इस कार्य को अपने "अहिंसा परमो धर्मह" की विचारधारा के साथ संपन्न किया।

और राष्ट्रपिता की अपनी  इस "उपाधी " को अपने अहिंसावादी विचारों से सार्थक किया।

यही सबसे प्रमुख कारण है कि भारतीय इतिहास के 150 वर्ष उनके योगदान को सिर्फ बाह्य वैश्विक शक्तियों से मुक्ति के तौर पर नहीं देखता है बल्कि उनके जीवन का उद्देश्य समाज और राष्ट्र के चहुँमुखी विकास के तौर पर भी स्वीकार करता है।

अन्य मानसिक, शारीरिक, वैचारिक , अर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर भी स्वन्त्रता के महत्व को समाज के सामने प्रस्तुत करने में और उसमें समाधान के संबंध में भी राष्टपिता ने अपना योगदान दिया है ।

आज की सामाजिक व्यवस्था उनकी दी हुई शिक्षाओं प्रश्नचिन्ह लगाता है। और गांधी जी के विचारों में स्वन्त्रता के सही अर्थ की मांग करता है।

समाज में जातिगत स्तर पर फैली इस अव्यवस्था से आज समाज को सही मायने में स्वन्त्रता प्राप्ति की आवश्यक्ता है। आज़ादी के सात दशको में भी हमारा राष्ट्र और समाज विदेशी ताकतों की "फूट डालो और शासन करो" की विरासत को संभाले हुए है। और विकास के नाम पर आर्थिक क्षेत्र को महत्व प्रदान कर रहा है।

गांधी जी के विचारों में स्वन्त्रता का सही अर्थ प्रकति ओर कानून के नियमों को अपनाकर मानवीय स्वन्त्रता को सुनिश्चित करना हैं। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि कुछ रूढ़िगत परंपराओं के नाम पर देश और राष्ट्र को एक अलग ही अंधेरे में रखा जाए और" दिये तले अंधेरा" होने की कहावत को सार्थक किया जाए।

मानसिक जड़ों में जमे इन जातिगत भेदभावपूर्ण विचारों को देश के आर्थिक विकास की आड़ में फैलने-फूलने का अवसर ना दिया जाए। और नई नीतियों को विचार भावनाओं में स्थान देकर उनकी शिक्षाओं का सही मूल्य अदा किया जाए ।

तभी सही मायनों में ये कहा जा सकता है कि जिस तरह ब्रिटिश लभगभ 70 वर्ष पहले हमें हमारी सत्ता सोप गए थे। ठीक उसी प्रकार हमने अपनी मानसिक सत्ता भी जातिगत भेदभावों के विचारों से वापस ले चुके है। और एक अलग ही एक राष्ट्र- एक धर्म की नीति के धारक बन चुके हैं।








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