राष्ट्र के आज़ादी के इतिहास में सत्तर वर्षों में ऐसा कोई अवसर नहीं आया, जब कश्मीर की समस्या ने देश को एक अलग ही अवस्था में नहीं पहुँचाया हो।
दस्तावेजों का संविधान यही दर्शाता रहा कि धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला "कश्मीर " भारत का एक अभिन्न अंग है। चाहे इस स्वर्ग को एक अन्य राज्यो की अपेक्षा एक विशेष राज्य का दर्जा ही प्राप्त क्यों ना हो और "राज्यों का संघ" कहा जाने वाला "भारत " देश इस स्वर्ग की इच्छा को अपने भूतपूर्व भाई कहे जाने वाले राष्ट्र (पाकिस्तान) से पूर्णतया सुरक्षित रखने में समर्थ है।
चूँकि दोनों ही भाई इस स्वर्ग की इच्छा को सच करने में प्रयासरत रहे हैं, लेकिन इस सत्य से बिल्कुल इन्कार नहीं किया जा सकता है कि रक्षक और भक्षक कभी भाई नहीं कहे जा सकते हैं। और विभाजन की दीवार इस सत्य को बिल्कुल स्पष्ठ तौर पर निश्चित कर देती है कि अधिकार का सही पक्षधर कौन है।
अधिकारो का निर्धारण मानवतावादी विचारधारा से ही किया जा सकता है और जैसे ही रक्षक( भारत)और भक्षक(पाकिस्तान) का विभाजन होता है, वेसे ही स्वर्ग और नरक की भागीदारी स्वयं ही निर्धारित हो जाती है। और सत्तर वर्षों की मानवतावादी सोच ने ही आज भारत देश को इस सुनहरे पलों से रूबरू कराया है।
जिस देश पाकिस्तान ने अपने आतंकी विचाराधाराओं को पोषित किया और इस धरती के स्वर्ग को नरसंहार के दृश्यों को देखने के लिए मजबूर किया। आज वही कश्मीर दशको बाद अपने सही हाथो में आतंकिस्तान के दिये गहरे घावों को अपने यादों के समेटे हुए अपने घर लौटा है। जिसको एक नया और सुनहरा भविष्य देना हर नागरिक का कर्तव्य है। और सही मायनों में अधिकारों की मौलिकता का उपयोग कर्तव्यों की मौलिकता से विस्थापित किये जाने का वक्त है, लेकिन विडम्बना यह है की ऐसा वास्त्व नही किया जा रहा है। आज अधिकारों ने कर्तव्यों को अधिकारित कर लिया है।
जब आज देश के इतिहास में नए दौर की शुरुआत हुई है। 5 अगस्त 2019 का दिन पुरानी राजनीतिक भूल को सुधार कर शांति और सौहार्द को फिर से कश्मीर में स्थापित करने में अपनी प्रबल इच्छाशक्ति के कारण एक अविश्वसनीय जीत को देश की झोली में डाल चुका है वही कुछ व्यक्तियों का ऐसा व्यवहार "अभिव्यक्ति की स्वन्त्रता" को भी शंकित करता है।
अधिकारों का ऐसा उपयोग जो स्वयं के सम्मान पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने पर मजबूर कर दे। कहा तक सही समझा जा सकता है। उच्चतम न्यायालय को प्राप्त होने वाली याचिकाओं में जिसमें स्वयं के राष्ट्र के लोग ही कश्मीर के भारत में विलय को शंकित कर रहे हैं। वह आज इस तथ्य से
पूर्णतया विश्मृत हो गए हैं कि यह वही राष्ट्र है जिसने अपनी पुरानी कुछ भूलो के कारण अपने ही राष्ट्र के लोगों को इसी स्वर्ग के लिए कई दशकों स बलिदान किया है। जिनके भी अपने कुछ मौलिक अधिकार थे। उनके अपने जीवन के भी कुछ अधिकार थे जो कि पुरानी राजनीतिक भूल की भेंट चढ़ गए।
क्या उस राजनीतिक भूल को इस राजनीतिक समझदारी से सुधारना गलत है ? क्या कुछ आधारहीन प्रश्नो के जवाब में अपनी शहीद जवानों के " जीवन के मौलिक अधिकारों को " भुलाना सही है? क्या देश के इतिहास के सबसे शानदार दौर पर अपनों का ही प्रश्नचिन्ह सही है? नही बल्कि अधिकारों के इस आसमान में कर्तव्यों से भरे नववर्ष का उत्तरायन मानने का वक्त है।
By Nimita sharma
दस्तावेजों का संविधान यही दर्शाता रहा कि धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला "कश्मीर " भारत का एक अभिन्न अंग है। चाहे इस स्वर्ग को एक अन्य राज्यो की अपेक्षा एक विशेष राज्य का दर्जा ही प्राप्त क्यों ना हो और "राज्यों का संघ" कहा जाने वाला "भारत " देश इस स्वर्ग की इच्छा को अपने भूतपूर्व भाई कहे जाने वाले राष्ट्र (पाकिस्तान) से पूर्णतया सुरक्षित रखने में समर्थ है।
चूँकि दोनों ही भाई इस स्वर्ग की इच्छा को सच करने में प्रयासरत रहे हैं, लेकिन इस सत्य से बिल्कुल इन्कार नहीं किया जा सकता है कि रक्षक और भक्षक कभी भाई नहीं कहे जा सकते हैं। और विभाजन की दीवार इस सत्य को बिल्कुल स्पष्ठ तौर पर निश्चित कर देती है कि अधिकार का सही पक्षधर कौन है।
अधिकारो का निर्धारण मानवतावादी विचारधारा से ही किया जा सकता है और जैसे ही रक्षक( भारत)और भक्षक(पाकिस्तान) का विभाजन होता है, वेसे ही स्वर्ग और नरक की भागीदारी स्वयं ही निर्धारित हो जाती है। और सत्तर वर्षों की मानवतावादी सोच ने ही आज भारत देश को इस सुनहरे पलों से रूबरू कराया है।
जिस देश पाकिस्तान ने अपने आतंकी विचाराधाराओं को पोषित किया और इस धरती के स्वर्ग को नरसंहार के दृश्यों को देखने के लिए मजबूर किया। आज वही कश्मीर दशको बाद अपने सही हाथो में आतंकिस्तान के दिये गहरे घावों को अपने यादों के समेटे हुए अपने घर लौटा है। जिसको एक नया और सुनहरा भविष्य देना हर नागरिक का कर्तव्य है। और सही मायनों में अधिकारों की मौलिकता का उपयोग कर्तव्यों की मौलिकता से विस्थापित किये जाने का वक्त है, लेकिन विडम्बना यह है की ऐसा वास्त्व नही किया जा रहा है। आज अधिकारों ने कर्तव्यों को अधिकारित कर लिया है।
जब आज देश के इतिहास में नए दौर की शुरुआत हुई है। 5 अगस्त 2019 का दिन पुरानी राजनीतिक भूल को सुधार कर शांति और सौहार्द को फिर से कश्मीर में स्थापित करने में अपनी प्रबल इच्छाशक्ति के कारण एक अविश्वसनीय जीत को देश की झोली में डाल चुका है वही कुछ व्यक्तियों का ऐसा व्यवहार "अभिव्यक्ति की स्वन्त्रता" को भी शंकित करता है।
अधिकारों का ऐसा उपयोग जो स्वयं के सम्मान पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने पर मजबूर कर दे। कहा तक सही समझा जा सकता है। उच्चतम न्यायालय को प्राप्त होने वाली याचिकाओं में जिसमें स्वयं के राष्ट्र के लोग ही कश्मीर के भारत में विलय को शंकित कर रहे हैं। वह आज इस तथ्य से
पूर्णतया विश्मृत हो गए हैं कि यह वही राष्ट्र है जिसने अपनी पुरानी कुछ भूलो के कारण अपने ही राष्ट्र के लोगों को इसी स्वर्ग के लिए कई दशकों स बलिदान किया है। जिनके भी अपने कुछ मौलिक अधिकार थे। उनके अपने जीवन के भी कुछ अधिकार थे जो कि पुरानी राजनीतिक भूल की भेंट चढ़ गए।
क्या उस राजनीतिक भूल को इस राजनीतिक समझदारी से सुधारना गलत है ? क्या कुछ आधारहीन प्रश्नो के जवाब में अपनी शहीद जवानों के " जीवन के मौलिक अधिकारों को " भुलाना सही है? क्या देश के इतिहास के सबसे शानदार दौर पर अपनों का ही प्रश्नचिन्ह सही है? नही बल्कि अधिकारों के इस आसमान में कर्तव्यों से भरे नववर्ष का उत्तरायन मानने का वक्त है।
By Nimita sharma

No comments:
Post a Comment