और विडंबना का विषय यह है कि यह चिंता उन लोगों के द्वारा की जा रही है जिन्हें आज समाज मे एक बहुत ही उच्च स्थान प्राप्त है
और समाज में धर्मनिरपेक्षता की भावना को निरंतर विकसित करने का एक दायित्व प्राप्त है। राष्ट्र स्वयं सेवक संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से अभिन्न रूप से एक अहम जुड़ाव रखने वाले व्यक्तियों द्वारा इस कार्य का किया जाना बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है।
इस विवाद के अगर सामाजिक पहलू को देखा जाए तो इस संबंध में सामाजिक स्तर पर कोई चिंता नहीं हैं। क्योंकि इसी समाज द्वारा संकीर्ण धार्मिक भावना से ऊपर उठकर 9 नवंबर 2019 को ऐतिहासिक धार्मिक विवाद को पूरे विवेक के साथ सुलझाया गया है।
लेकिन हिन्दू विश्वविद्यालय में मुस्लिम अध्यापक की संस्कृत भाषा के अध्यापन के लिए नियुक्ति हिन्दू समुदाय के कुछ बहुप्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के द्वारा अलग ही प्रकार से देखी जा रही है
जो कि एक संवेदनशील और प्रगतिशील समाज में भाषा के विकास में गतिरोध उत्पन्न करने का कार्य मात्र कर रही है। ऐसी भाषा जो कि विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है और जिसकी प्राचीनता भारतीय संस्कृति से संबंधित है। और इसे सुरक्षित रखने के उद्देश्य से अगर संस्थान द्वारा यह कार्य किया गया तो इसमें कोई अनुचित कार्य समझ नही आता है। यह बहुत ही जटिल भाषा है, जिसका अध्य्यन स्वयम इसके समुदाय द्वारा नहीं किया जा रहा है। ऐसे में इस संस्थान के उद्देश्य की पूर्ति अगर किसी अन्य समुदाय के व्यक्ति के द्वारा की जा रही है। तो इसमें गतिरोध उतपन्न नही किया जाना चाहिए ओर भाषा के विकास में बाधक नही बनना चाहिए।

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